Monday, October 17, 2016

बंजर

सफर ये कैसा था
शायद लंबा सा और थोड़ा टेढ़ा सा
या छोटा सा लेकिन तनहा सा
कभी रास्ते ऊपर नीचे थे
कभी दूर तक मीलों सपाट
उन रास्तों पर थे तुम कभी
एक अचानक से मोड़ पर
जैसे खड़े हो चलने के लिए
और मैं चली थी तुम्हारे इंतज़ार में
आँखों ने सपने जो कभी बुने नहीं 
उनको उंगलियों के पोरों से उधेड़ा 
मोम के पंख पर सवार हो 
सूरज को पकड़ने उड़ान भरी 
जवाब माँगना तो था लेकिन 
सवालों का सन्नाटा भारी पड़ गया 
तुम्हारी आँखों में शिकायत तो नहीं थी 
क्योंकर कड़वापन सीने में उतर गया 
अश्क़ों का गीलापन दिल बंजर कर गया