Monday, April 30, 2007

आंखें

आँखें खुली एक सुबह
सुबह जो सुनहरी थी
महकी थी जो
आशाओं से और कविताओं से

आँखें खुली ही
सपना ही सा तो था सब कुछ
कुछ धुंधला धुन्द्ला सापर शायद था तो सच्चा ही ।

आंखों में शायद कोई किर्ची थी पड़ी
achaanak से बंद हुईं वोखुली तो सब कुछ पानी था
बहता हुआ ढलता हुआ सा

देखा आंखों ने
सपनों को बहते हुए
कविताओं को रोते हुएखुशबु को कहीँ गुम होते हुए

आँखें बंद तो theen
पर अब भी था unmein एक junoon
beh jayein सब सपने
पर होंगे सब sach

एक anokhi chamak थी
un बंद palkon के पीछे
खुद से किये हुए vaade the
na haarne का था hausla

पानी तो baha
दर्द तो हुआ
पर
आँखें खुली तो unhein mili drishti.

1 comment:

  1. liked it....deep thoughts and well put....although rhyme was missin but i guess it was supposed to be like that

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